साल 2024 में 64 देशों के साथ यूरोप में भी इसी साल चुनाव, क्यों इन देशों के नतीजों पर टिकी रहेंगी दुनिया की नजरें?

नई दिल्ली देश में आम चुनाव का आयोजन होने वाला है, जो 19 अप्रैल से...

साल 2024 में 64 देशों के साथ यूरोप में भी इसी साल चुनाव, क्यों इन देशों के नतीजों पर टिकी रहेंगी दुनिया की नजरें?

नई दिल्ली

देश में आम चुनाव का आयोजन होने वाला है, जो 19 अप्रैल से सात चरणों में होगा. इस दौरान करीब 96.8 करोड़ मतदाता वोट डालेंगे. इसी तरह दुनिया की भी लगभग आधी आबादी अपने-अपने देशों में नेता चुनने वाली है. मैक्सिको से साउथ अफ्रीका, और ब्रिटेन से लेकर बेल्जियम तक कुल 80 देशों में या तो हाल में चुनाव हुए, या आने वाले कुछ महीनों में होंगे. ऐसा इतिहास में पहली बार हो रहा है. वैसे तो हर देश के लिए उसका इलेक्शन और नतीजे जरूरी हैं, लेकिन कई डेमोक्रेसीज हैं, जिनके चुनावों में जीत-हार से दुनिया पर असर होगा. 

अमेरिकी जीत-हार का असर काफी

वहां राष्ट्रपति चुनाव नवंबर में होंगे लेकिन भूचाल अभी से आया हुआ है. पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी एक उम्मीदवार हैं. रिपब्लिकन पार्टी से इस दावेदार पर ज्यादातर वोटर भरोसा भी दिखा रहे हैं. जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स के एक सर्वे में 59% वोटरों ने इकनॉमी के मामले में ट्रंप पर भरोसा किया, जबकि वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन पर केवल 37% ने भरोसा जताया. ये उनका अंदरुनी मामला है, लेकिन असर लगभग सभी देशों पर दिखेगा. 

जैसे डेमोक्रेटिक पार्टी को कम आक्रामक माना जाता है. वहीं रिपब्लिकन समेत उसका उम्मीदवार भी बेहद आक्रामक माना जाता है. ट्रंप की बात करें तो वे रूस में वर्तमान सत्ता के करीबी माने जाते रहे, जबकि चीन से तनाव अक्सर बयानों में दिखता रहा. इन बड़े देशों के साथ रिश्तों में उतार-चढ़ाव होते ही हरेक की इकनॉमी और डिप्लोमेसी पर असर हो सकता है. जैसे जो देश अमेरिका के दोस्त हैं, देखादेखी उन्हें भी किसी से कठोर या किसी के लिए नरम लहजा अपनाना पड़ सकता है. 

नए तनाव पनप सकते हैं

कुछ समय पहले ही ट्रंप ने नाटो में कम पैसे लगाने वाले सदस्य देशों से नाराजगी दिखाते हुए जरूरत में मदद न करने की धमकी दी थी. ये भी एक खतरा है. हो सकता है कि इससे वर्तमान में चल रहे युद्धों के साथ नई लड़ाइयों की जमीन तैयार हो जाए. वैसे ट्रंप के आने से इजरायल और खाड़ी देशों के रिश्ते सुधरे. उनके दौर में यूएई, बहरीन और इजरायल के बीच शांति समझौता हुआ. तो इसमें ये भी हो सकता है कि मध्यस्थता से इजरायल और हमास का तनाव थोड़ा ढीला पड़ जाए. ऐसे कई कयास एक्सपर्ट लगातार लगा रहे हैं, लेकिन इतना तय है कि वहां जो भी लीडर होगा, उसका असर दुनिया पर होगा. 

यूरोपियन यूनियन का असर शरणार्थी नीति पर 

यूरोपियन पार्लियामेंट की 720 सीटों पर यानी 27 देशों में जून में चुनाव होंगे. इससे पूरे यूरोप का आने वाले समय में दुनिया के लिए रवैया तय हो सकता है. इसमें जर्मनी, फ्रांस और पोलैंड और डेनमार्क जैसे ताकतवर देश हैं. इन देशों में कथित तौर पर दक्षिणपंथ की हवा चल रही है. ऐसे में अगर इसी सोच या वायदे वाला कैंडिडेट जीतकर आए तो शरणार्थी पॉलिसी पर असर हो सकता है. हो सकता है कि बाहरी लोगों के लिए वहां जगह न बचे, या पहले से रहते लोगों के लिए मूल लोगों का रवैया बदल जाए. इससे पैदा हुए तनाव का असर हर कोने में दिखेगा. 

ईयू की क्लाइमेंट चेंज पॉलिसीज को भी बाकी देश फॉलो करते रहे. फिलहाल बढ़ती ग्लोबल वॉर्मिंग के बीच ये भी देखा जा रहा है कौन सी पार्टियां क्लाइमेट चेंज को लेकर कितनी गंभीर हैं. 

भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में भी चुनाव है, जो बहुत खास माना जा रहा है. असल में साल 2022 में गंभीर आर्थिक संकट झेलने के बाद वहां राष्ट्रपति पद के लिए ये पहला चुनाव होगा. भारत और चीन दोनों की इसपर नजरें रहेंगी क्योंकि दोनों ही देशों ने श्रीलंका को भारी कर्ज भी दिया, साथ ही भारत इस देश का सबसे करीबी सहयोगी भी माना जाता रहा. 

चूंकि देशों की नीतियों पर इससे भी असर पड़ता है कि कहां कौन लीडर चुना गया, इसलिए कई देश एक-दूसरे के चुनावों में दखल भी देते रहे. कम से कम ऐसा आरोप आपस में लगाते रहे, हालांकि क्योंकि हस्तक्षेप सीधा नहीं होता इसलिए कभी इसका सबूत भी नहीं मिल सका. 

सीधे-सीधे असर नहीं डालता है 

कोई भी देश फॉरेन इलेक्टोरल इंटरवेंशन सीधे-सीधे नहीं करता ताकि उसकी इमेज खराब न हो. वो चुपके से चुनावों पर असर डालता है. ये भी दो तरीकों से होता है. जब विदेशी ताकतें तय करती हैं कि उन्हें किस एक का साथ देना है. दूसरे तरीके में विदेशी शक्तियां लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव के लिए देशों पर दबाव बनाती हैं. 

क्या फायदे हैं इसके 

दूसरे देश के फटे में टांग अड़ाने से वैसे तो सारे देश बचते हैं लेकिन चुनाव अलग मुद्दा है. इसमें जो सरकार चुनकर आती है, उसकी फॉरेन पॉलिसी सिर्फ उसे ही नहीं, पड़ोसियों से लेकर दूर-दराज को भी प्रभावित करती है. वो किससे क्या आयात करेगा, क्या एक्सपोर्ट करेगा, किसका साथ देगा, या किसका विरोध करेगा, ये सारी बातें इसपर तय करती हैं कि वहां सेंटर में कौन बैठा है. ये वैसा ही है, जैसे पावर सेंटर पर किसी दोस्त का होना. 

तनावपूर्ण रिश्तों वाले देशों में भी कोई न कोई पार्टी ऐसी होती है, जो विरोधियों से साठगांठ कर ले. यही कारण है कि बहुत से ताकतवर देश, अपने पड़ोसियों, दुश्मन देशों से लेकर लगभग सभी के चुनावों पर खास नजर रखते हैं. हमारे यहां कौन पीएम बन रहा है, इसका अमेरिका के लिए भी मोल है, और चीन के लिए भी.

किन तरीकों से चुनाव में लगती हैं सेंध 

इसमें सबसे ऊपर है इंफॉर्मेशन मैनिपुलेशन. इसके तहत सूचनाओं से छेड़छाड़ करके उसे किसी एक पार्टी के पक्ष, और दूसरे के खिलाफ माहौल बनाया जाता है. टूलकिट जैसे टर्म इसी का हिस्सा हैं. इसके तहत किसी एक सरकार को निकम्मा या घूसखोर बताया जाता है. वोटर अगर कम जानकार है तो उसे गलत बातों से तुरंत प्रभावित किया जा सकता है. कुल मिलाकर भ्रम पैदा करके अपने पक्ष में माहौल बनाया जाता है. बहुत से फेक अकाउंट बन जाते हैं, जो ट्रोलिंग करते या फेक न्यूज को फैलाते रहते हैं.